रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपनी बीवियों की ख़िदमत करते और अपने काम ख़ुद करते थे... आयशा रज़ी अल्लाहुअन्हा से पूछा गया: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने घर क्या करते थे? कहा: "आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने घर वालियों के काम यानी उनकी ख़िदमत किया करते थे, फिर जब नमाज़ का वक़्त हो जाता तो नमाज़ के लिए निकल जाते।" (सहीह बुखारी: 5363, तिर्मिज़ी: 2489) इस हदीस का उलमा ने माने बयान किया है कि यानी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कोई काम उनकी (बीवियों) की ख़िदमत करने से नहीं रोकता सिवाए फ़र्ज़ नमाज़ के। दूसरी रिवायत में सय्यदा आयशा सिद्दीक़ा रज़ी अल्लाहुअन्हा फरमाती हैं: "वो इंसानों में से एक इंसान थे, अपने कपड़ों को जुओं से साफ़ करते, अपनी बकरी का दूध दुहते और अपने काम (ख़िदमत) ख़ुद ही करते थे। (मिश्कात अल मसाबीह: 5822, शमाइल तिर्मिज़ी: 325)
एक मिसाली मुसलमान औरत का ज़ीनत इख़्तियार करना...
अल्लाह त'आला ने हर चीज़ में हुस्न-ओ-जमाल को रखा है और हर चीज़ के अंदर ये अहसास पैदा किया है कि वो हसीन और जमील चीज़ को देख कर मसर्रत और लुत्फ का मुज़ाहरा करे, नबी अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि अल्लाह त'आला ख़ूबसूरत हैं और ख़ूबसूरती को पसंद फरमाते हैं, चुनांचे ये एक ऐसी फ़ितरत है जिसका कोई भी इंसान इंकारी नहीं और इस हुस्न-ओ-जमाल का अगर कोई शाहकार है इस कायनात में तो वो औरत है कि जिसके ज़ेब-ओ-ज़ीनत के लिए इंसानी तारीख़ का फ़लसफ़ा और इंसानी मिज़ाज दोनों ही मानने वाले हैं, इस्लाम ने भी इंसानी मिज़ाज का लिहाज़ रखते हुए औरत के लिए एक रुख़्सती दी है मसलन रेशम, सोना इस्ते'माल करना मर्दों के लिए तो हराम है लेकिन औरत के लिए पसंदीदा।
औरतें बचपन से मरते दम तक अपनी ज़ीनत व आराइश और बनाओ सिंघार में मशग़ूल रहती हैं और उनकी सारी कोशिश इसी काम में सर्फ होती है कि अपनी ज़ात को हसीन और जमील बनाएं और उनका हुस्न-ओ-जमाल लोगों की नज़र में दिलकश और दिल-फ़रेब मा'लूम हो। कोई मर्द औरतों के इस मश्ग़ले पर ए'तिराज़ नहीं करता क्योंकि उनको ऐसे कामों के करने की आज़ादी दी गई है जो उनकी ख़ुशी और रज़ामंदी का बा'इस हो। मगर मर्दों का ए'तिराज़ न करना और उनके बनाओ सिंघार के मश्ग़ले से बे-परवाई का बरताव काफ़ी नहीं है, बल्कि हर मर्द पर लाज़िम है कि जब वो किसी औरत को बनाओ सिंघार और ज़ीनत व आराइश में मशग़ूल देखे तो निहायत ख़ुशी और मसर्रत का इज़हार करे और इस बात की कोशिश करे कि वो औरत अपने इस मश्ग़ले को हमेशा जारी रखे।
औरत की जेब-ओ-ज़ीनत और बनाओ सिंघार सारे का सारा सिर्फ़ शौहर के लिए है। उस औरत के लिए इस्लाम ने पाबंदी रखी है जो घर में शौहर को दिखाने के लिए कपड़े ही न बदले वही पुराने मैले कुचैले कपड़ों के साथ फिरती रहे कि मैं किचन में मसरूफ़ हूं, और जब बाहर जाने का वक़्त आए ख़्वाह शादी ब्याह, शॉपिंग, किसी के घर जाना हो या कोई कल्चर फंक्शन हो तो फिर वो नहाए धोए, शानदार कपड़े भी पहने, ख़ुशबू भी लगाए और बनाओ सिंघार भी करे इस अंदाज़ के साथ जाए कि फ़ासले से भी ख़ुशबू आए। अब वो किसके लिए बनाओ सिंघार करके जा रही है?
जिसके लिए अल्लाह ने हलाल किया था उसको तो सब कुछ दिखाया नहीं। जिसके दिल को ख़ुश करना था, जिसकी मुहब्बत को खींचना था, जिसके दरमियान आपस में मवद्दत पैदा करनी थी। ज़ेब-ओ-ज़ीनत बनाओ सिंघार कपड़े फैशन सब कुछ जायज़ है औरत के लिए मगर घर में अपने शौहर के लिए।
नबी अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि कौनसी औरत बेहतर है आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया जिस औरत को देख उसका ख़ाविंद ख़ुश हो जाए और ख़ाविंद की इता'अत गुज़ार हो। ख़ाविंद की किसी भी मु'आमले में नाफ़रमानी न करने वाली हो, नबी अलैहिस्सलाम ने मना फरमाया है कि कोई भी मर्द रात को इस हालत में घर न जाए जब बीवी अपना बनाओ सिंघार न कर सके ताकि ख़ाविंद के लिए कोई कराहत न आए बीवी की तरफ से। (सहीह बुखारी: 5244)
तो अगर ख़ाविंद ऐसी हालत में घर नहीं आ सकता तो औरत के लिए क्यों ही जायज़ होगा कि वो ख़ाविंद को मसर्रत की बजाए कराहत और नापसंद आए और इज़दिवाजी मुहब्बत को ठेस पहुंचे, बहरहाल औरत को अपने ख़ाविंद के लिए अच्छी तरह बनाओ सिंघार करने की ज़रूरत है और इसका ख़याल अक्सर अरब औरतें और यूरेशिया में मकीन कई एक औरतें अच्छी तरह रखती हैं।
अगर शौहर की मौत हो जाये तो बीवी चार महीने दस दिन इद्दत के तौर पर गुजारती है मगर बीवी मर जाये तो शौहर का कोई इद्दत नहीं होता
छोटा था तो कच्चे ज़ेहन में ये सवाल मुझे बहुत परेशान करता था मतलब बीवी की मौत का कोई गम नहीं, आखिर ये नाइंसाफी क्यों? और फिर बाशऊर होने पर एक ख्वातीन आलिम ने मेरे सवाल का जवाब दिया
इद्दत बेवा पर बोझ नहीं, पर उसके किरदार को शीशे की तरह शफ्फाक रखता है, मौत कभी भी आ सकती है, हो सकता है शौहर के मौत के वक्त बीवी के कोख में कुछ वक्त पहले ही हमल (गर्भ) ठहर गया हो जिसका पता किसी को न हो, शायद औरत को भी नहीं
अब इस सच को सबके सामने आने में कम से कम तीन -चार माह का वक्त लग सकता है
इद्दत के दौरान बेवा खुद को बहुत समेट कर रखती है, निहायत सख्त जरूरत के अलावा घर से बाहर नहीं निकलती
किसी गैर मर्द से आमना सामना भी नहीं होता, ऐसे में बेवा के बच्चे के वल्दियत पर कहीं कोई शक सुबहा नहीं जता सकता,
बेवा के किरदार पर कोई एक टेढ़ी नजर भी नहीं डाल सकता और मर्दो के साथ ऐसी कोई मसला नहीं है, इसलिये इद्दत सिर्फ बीवी तक ही महदूद है, आलिमा की बात सुन कर मेरा दिल नदामत से भर आया... या अल्लाह मुझे माफ करना कि मुझे तेरे कानून पर कुछ पल के लिये शक हुआ....
शरीअत में तो हर हाल में औरत की अजमत को बरकरार रखा है