नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "पिछले ज़माने में एक शख़्स के हाथ में ज़ख़्म हो गया, उसे उससे बड़ी तकलीफ़ थी, आख़िर उसने छुरी से अपना हाथ काट लिया, उसका ख़ून बहने लगा, और उसी से वो मर गया। अल्लाह त'आला ने फरमाया: कि मेरे बंदे ने मेरे पास आने में जल्दी की, मैंने जन्नत को उस पर हराम कर दिया!" (सहीह बुखारी: 3463)
यक़ीनन जो मर्द और औरतें मुस्लिम हैं, मोमिन हैं, फ़रमाँबरदार हैं, सच्चे हैं, सब्र करने वाले हैं, अल्लाह के आगे झुकने वाले हैं, सदक़ा देने वाले हैं, रोज़ा रखने वाले हैं, अपनी शर्मगाहों (छिपे अंगों) की हिफ़ाज़त करने वाले हैं, और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले हैं, अल्लाह ने उनके लिये माफ़ी और बड़ा बदला तैयार कर रखा है [सूरह : अहजाब, आयत : 35]
अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर इस्लाम ने हर उस शख़्स पर, जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखता है, "अम्र बिल मा'रूफ़ व नही अ'निल मुनकर" यानी "(लोगों को) भलाइयों का हुक्म देना और बुराइयों से रोकना" उसी तरह फ़र्ज़ क़रार दिया है, जिस तरह पांच वक़्त की नमाज़ को फ़र्ज़ किया है अल्लाह के नबी ने फ़रमाया : तुममें से जो भी, कोई बुरा काम (होते हुए) देखे, तो उसे चाहिए कि उसे अपने हाथों से रोके और अगर, वह इस क़ाबिल नहीं (कि हाथ से रोक सके) तो अपनी ज़बान से रोके और अगर इस क़ाबिल भी नहीं (कि ज़बान से रोक सके) तो अपने दिल से रोके (यानी उस काम को अपने दिल में ही बुरा जाने ) और ये ईमान का सबसे कमज़ोर दर्जा है (यानी जो ये भी ना कर सके तो वह ईमानवाला ही नहीं ) [मुस्लिम] बुराइयों से रोकना और भलाइयों का हुक्म देना, इतना आला अ'मल है, कि इसी अ'मल की बिना पर, ख़ुदा ने उम्मते-मुस्लिमा को बेहतरीन उम्मत कहा है : "तुम बेहतरीन उम्मत हो, जो (लोगों की) हिदायत के वास्ते पैदा पैदा की गयी है, तुम (लोगों को) अच्छे काम का हुक्म देते हो, और बुरे कामों से रोकते हो" [कुरआन 3 : 110 ] सैकड़ों अहादीस और क़ुरान की दर्जनों आयात, इतनी वज़ाहत के साथ इस अ'मल के तमाम आयाम बयान करती हैं कि इसकी फ़र्ज़ियत में किसी शक की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती लेकिन अफ़सोस कि आज उम्मत का ही कोई फ़र्द अगर इस काम के लिए आगे आता है, तो उम्मत के ही दूसरे अफ़राद उसकी टांग खींचने में सबसे आगे होते हैं उस पर सौ तरह के लान-तान की बौछार शुरू हो जाती है उसकी ख़ुद की कमियों की गिनती होने लगती है इस ना-ज़ेबा रद्दे-अ'मल की हक़ीक़त को समझने की कोशिश करते हैं एक शख़्स को जब उसकी ग़लती बताई जाती है तो उसके रद्दे-अमल से उसका ज़र्फ़ ज़ाहिर होता है अगर वह आला-ज़र्फ़ का हामिल हुआ तो या तो ग़लती क़ुबूल कर लेगा या कह देगा कि भाई जिस बात को आप ग़लती समझ रहे हैं, मैं उसको ग़लत समझता ही नहीं लेकिन आला-ज़र्फ़ ना होकर, अगर वह सिर्फ़ औसत-ज़र्फ़ का हामिल हुआ, तो अपनी ग़लती क़ुबूल कर लेगा लेकिन बदला निकालने की ग़रज़ से सामने वाले की भी सौ ग़लतियाँ गिनाना शुरू कर देगा लेकिन अगर वह शख़्स बिलकुल ही कमज़र्फ़ इंसान हुआ तो सीना ठोंक के कहेगा, मैं सही-करूँ या ग़लत करूँ तुम्हें इससे क्या मतलब? मैं तो ऐसे ही करता हूँ, और करता रहूँगा